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अबतक तो आँखों की पलकों पर
हमें उठाये हुए हो ;
अगर आँखे बन्ध कर दोगी
तो हम कहाँ जाके गिरेंगे ?
हमने तो खौसला पहेले से ही
जला रखहा है ,
अब चाहो तो पांखे भी जला दो !
तुम्हारे चाहने वाले अगर सैंकड़ो है
तो बस इतना ही समजलो तो काफी है
की
हम उनमे से एक है ;
मुज़े कबूल है मेरी गुस्ताखी ,
इसकी सज़ा शायद तुम न दे पाओगी ;
और अपने आपको क्या सज़ा दु ?
बहुत पहिले ही ख़ुदकुशी कर चूका हूँ ;
फिर भी द्रोणाचार्य की तराह
तुम भी तुम्हारे अर्जुन के लिए
मेरा अंगूठा मांग शकती हो --
ये जानते हुए भी की
इसकी जान
अब करीबन जा चुकी हैं !
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20 July 1985
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