Transliteration from original English " Vasavdatta " [ dt 10 Aug 1970 ]
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वासवदत्ता / 22 July 2019
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घनी ,अँधेरी रात में
तूफ़ान उट्ठा ,
सून कर बादलों की गरज ,
देख बिजलियों की चमक ,
दिल में वासवदत्ता के
उठी एक आंधी ;
तय न कर पायी
क्या मचल रहा था ज्यादा ,
हवा ओ मे झूमता
क्षिप्रा नदी का पूल
या ,
अरमाओ की आंधी से मचलता
आँचल तले , अपना ऊर ?
पूल के उस पार
खड़ा था प्रीतम ,
बांसुरी के सूरो से
कर रहा था बेताब ,
बेचैन ,
उस रात को
प्रीतम !
चलो जल्दी ,
वासवदत्ता ,
समय बिता जा रहा है
वासवदत्ता !
चलो आहिस्ता , आहिस्ता
धीरे कदम , धीमे कदम
न कोई रुकावट राह में
पीछे छोड़ के आँगन ,
जरा तेज भागो
जरा दोड़ो ,
वासवदत्ता !
'गर काजल
तेरी आँखों के बजाय
लग भी गया गालो पे ,
और ,
बिन सँवारे ज़ुल्फ़े को
अनिल चूमता रहे ,
तो चूमने दो , वासवदत्ता ,
कब तक इंतज़ार करेगा , प्रीतम ?
कैसी भयानक है ये रात !
कितना डरावना है , हवा का चीत्कार !
'गर पानी से भरी है तेरी राहें ,
मत उठाव पल्लू ,
और अगर बरखा ने भिगो दिया तेरा दामन ,
भीगने दे !
पहुँच कर क्षिप्रा तिरे
बोली वासवदत्ता ;
" जिसके सुरों से
पागल हो रही हूँ ,
वो बांसुरी को मत बजाओ ,
प्रीतम ,
जिस बिरह की आग में
जल रही हूँ
उसे मत बढ़ाओ ;
पर ये कौन रुक रहा है
राह मेरा ?
किससे टकरा रहे है
पैर मेरे ? "
तब
दामिनी की दमक में देखा
एक हसता हुआ चहेरा ;
संभाल साँस को बोली
वासवदत्ता ,
" कौन हो तुम ?
और इस भयानक रात में
क्यों लेटे हो ज़मीं पर तुम ? "
तब अजनबी बोले :
" नाम है मेरा , उपगुप्त ,
कर्म से हूँ , साधू ;
धरती को बना लिया मेरा बिस्तर ,
और
आसमां की ओढ़ चादर
गोद में हरियाली की
लेटता हूँ "
सुनकर बोली , वासवदत्ता :
" मुझे माफ़ कर साधू ,
तेरे बदन को
पैरों से छुआ इस लिए ,
क्षमा कर , साधू ;
बिनती करू
बनो आज रात , महेमान मेरे ,
तो
पाप का प्रायश्चित करू
साधू ! "
हंस कर बोला , उपगुप्त :
" वासवदत्ता ,
आज की रात मेरे नसीब नहीं ,
वादे किये तूने
जिस प्रीतम को ,
जाके कहो उनसे ,
आज की रात तेरे लिए है !
पर मैं लौट के आऊंगा ,
और उस दिन
वादा मेरा निभाउंगा ,
आज तो किया जो वादा
इस धरती को ,
बस
वही निभाउंगा ! "
फिर समय की धारा
बहती चली ,
आने वाली हर पल ,
जा कर अतीत में
खोती चली ;
बरसो बिते,
और एक पूरनमासी की रात
क्षिप्रा के तरंगो पर होके
हलकी हवा चली ;
तब उपगुप्त
वही राह से निकला ,
देखा ,
मिली थी जहाँ वासवदत्ता
पहेली बार ,
वहीं लेटी थी जमीं पर ,
लेकर कोई असाध्य रोग ,
बुला कर मौत को
कराहती थी
वासवदत्ता !
तब ज़ुकके
कानो में बोला उपगुप्त :
" देखो
वासवदत्ता ,
मेरा वादा निभाने
मैं आ गया हूँ "
गुनगुनाई वासवदत्ता :
मुझे मत छुओ , साधू ,
कुष्टरोगी को मत छुओ ;
मेरे पापो का घड़ा भर चुका है ,
अंतकाल मेरा , आ गया है !
मेरे चाहनेवालों ने
मुझे ठुकरा दिया है
मुझे शर्मिंदा मत करो , साधू ! "
तब बोला उपगुप्त :
" काल तो मेरा भी आया है ,
किया था जो तुज़से वादा
वो निभाने की रात
आ गयी है ,
कभी ख़त्म न होने वाली
हमारे मिलन की
सुहागरात लायी है ,
आभमे सितारों की है चमक ,
फ़ज़ा में लहराती है
फोरम फूलों की ,
क्या , सून पाती हो
मेरी बांसुरी के सुर ?
आज मेरे साथ गाओ
वासवदत्ता ,
मधुमिलन की सुहागरात
आज
मेरे साथ मनाओ ,
वासवदत्ता !
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वासवदत्ता / 22 July 2019
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घनी ,अँधेरी रात में
तूफ़ान उट्ठा ,
सून कर बादलों की गरज ,
देख बिजलियों की चमक ,
दिल में वासवदत्ता के
उठी एक आंधी ;
तय न कर पायी
क्या मचल रहा था ज्यादा ,
हवा ओ मे झूमता
क्षिप्रा नदी का पूल
या ,
अरमाओ की आंधी से मचलता
आँचल तले , अपना ऊर ?
पूल के उस पार
खड़ा था प्रीतम ,
बांसुरी के सूरो से
कर रहा था बेताब ,
बेचैन ,
उस रात को
प्रीतम !
चलो जल्दी ,
वासवदत्ता ,
समय बिता जा रहा है
वासवदत्ता !
चलो आहिस्ता , आहिस्ता
धीरे कदम , धीमे कदम
न कोई रुकावट राह में
पीछे छोड़ के आँगन ,
जरा तेज भागो
जरा दोड़ो ,
वासवदत्ता !
'गर काजल
तेरी आँखों के बजाय
लग भी गया गालो पे ,
और ,
बिन सँवारे ज़ुल्फ़े को
अनिल चूमता रहे ,
तो चूमने दो , वासवदत्ता ,
कब तक इंतज़ार करेगा , प्रीतम ?
कैसी भयानक है ये रात !
कितना डरावना है , हवा का चीत्कार !
'गर पानी से भरी है तेरी राहें ,
मत उठाव पल्लू ,
और अगर बरखा ने भिगो दिया तेरा दामन ,
भीगने दे !
पहुँच कर क्षिप्रा तिरे
बोली वासवदत्ता ;
" जिसके सुरों से
पागल हो रही हूँ ,
वो बांसुरी को मत बजाओ ,
प्रीतम ,
जिस बिरह की आग में
जल रही हूँ
उसे मत बढ़ाओ ;
पर ये कौन रुक रहा है
राह मेरा ?
किससे टकरा रहे है
पैर मेरे ? "
तब
दामिनी की दमक में देखा
एक हसता हुआ चहेरा ;
संभाल साँस को बोली
वासवदत्ता ,
" कौन हो तुम ?
और इस भयानक रात में
क्यों लेटे हो ज़मीं पर तुम ? "
तब अजनबी बोले :
" नाम है मेरा , उपगुप्त ,
कर्म से हूँ , साधू ;
धरती को बना लिया मेरा बिस्तर ,
और
आसमां की ओढ़ चादर
गोद में हरियाली की
लेटता हूँ "
सुनकर बोली , वासवदत्ता :
" मुझे माफ़ कर साधू ,
तेरे बदन को
पैरों से छुआ इस लिए ,
क्षमा कर , साधू ;
बिनती करू
बनो आज रात , महेमान मेरे ,
तो
पाप का प्रायश्चित करू
साधू ! "
हंस कर बोला , उपगुप्त :
" वासवदत्ता ,
आज की रात मेरे नसीब नहीं ,
वादे किये तूने
जिस प्रीतम को ,
जाके कहो उनसे ,
आज की रात तेरे लिए है !
पर मैं लौट के आऊंगा ,
और उस दिन
वादा मेरा निभाउंगा ,
आज तो किया जो वादा
इस धरती को ,
बस
वही निभाउंगा ! "
फिर समय की धारा
बहती चली ,
आने वाली हर पल ,
जा कर अतीत में
खोती चली ;
बरसो बिते,
और एक पूरनमासी की रात
क्षिप्रा के तरंगो पर होके
हलकी हवा चली ;
तब उपगुप्त
वही राह से निकला ,
देखा ,
मिली थी जहाँ वासवदत्ता
पहेली बार ,
वहीं लेटी थी जमीं पर ,
लेकर कोई असाध्य रोग ,
बुला कर मौत को
कराहती थी
वासवदत्ता !
तब ज़ुकके
कानो में बोला उपगुप्त :
" देखो
वासवदत्ता ,
मेरा वादा निभाने
मैं आ गया हूँ "
गुनगुनाई वासवदत्ता :
मुझे मत छुओ , साधू ,
कुष्टरोगी को मत छुओ ;
मेरे पापो का घड़ा भर चुका है ,
अंतकाल मेरा , आ गया है !
मेरे चाहनेवालों ने
मुझे ठुकरा दिया है
मुझे शर्मिंदा मत करो , साधू ! "
तब बोला उपगुप्त :
" काल तो मेरा भी आया है ,
किया था जो तुज़से वादा
वो निभाने की रात
आ गयी है ,
कभी ख़त्म न होने वाली
हमारे मिलन की
सुहागरात लायी है ,
आभमे सितारों की है चमक ,
फ़ज़ा में लहराती है
फोरम फूलों की ,
क्या , सून पाती हो
मेरी बांसुरी के सुर ?
आज मेरे साथ गाओ
वासवदत्ता ,
मधुमिलन की सुहागरात
आज
मेरे साथ मनाओ ,
वासवदत्ता !
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What lovely emotions captured in words..
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